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ईश्वरीय कृपा उसी द्वार से आती है, जहां श्रद्धा बिना डगमगाए खड़ी हो

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श्रद्धा मन की वह अटूट शक्ति है, जो भय और संदेह से ऊपर उठाकर दिव्य अनुभूति और मनोकामना पूर्ति के द्वार खोलती है। जब तक पूर्ण श्रद्धा नहीं होगी, तब तक ईश्वर के दर्शन या मनोकामना पूर्ण नहीं होगी। जब मन, बुद्धि और हृदय तीनों में एक साथ तालमेल स्थापित होता है, तब मन की शंका विलीन हो जाती है और हमारा विश्वास ही ईश्वरीय शक्ति को मनोकामना पूरी करने के लिए बाध्य करता है।



श्रद्धा की परीक्षा

एक गांव में एक महात्मा आए। उन्होंने ईश्वर प्राप्ति हेतु एक कठोर अनुष्ठान आरंभ किया। वे स्वयं को लोहे की जंजीरों से बांधकर एक कुएं में उल्टा लटक गए और तपस्या करने लगे, यह सोचकर कि ईश्वर उनकी कठोर साधना से प्रसन्न होकर दर्शन देंगे। वे कई दिनों तक भूखे-प्यासे उसी अवस्था में लटके रहे। लोग उन्हें देखने आने लगे। उन्हीं में एक सरल हृदय ग्रामीण बालक भी था।



उसने सोचा, 'अगर इस प्रकार लटकने से ईश्वर मिलते हैं तो मैं भी यही करूंगा।' उसने पास पड़ी एक साधारण रस्सी उठाई, अपने पैरों में बांधी और कुएं में कूद गया। रस्सी क्षणभर में टूट गई, लेकिन गिरने से पहले ही ईश्वर ने प्रकट होकर उसे अपनी बांहों में भर लिया, दर्शन दिए और उसका उद्धार किया। जब महात्मा को यह ज्ञात हुआ तो उन्होंने ईश्वर से पूछा, 'मैं तो अब तक लटका हूँ, फिर भी मुझे दर्शन क्यों नहीं दिए?' तभी आकाशवाणी हुई, 'तेरी श्रद्धा लोहे की जंजीर में थी, मुझमें नहीं। तुझे भय था, इसलिए स्वयं को मजबूत बांध लिया। लेकिन उस बालक की श्रद्धा मुझ पर थी, इसीलिए वह गली हुई रस्सी को ही पैर पर बांधकर कूद पड़ा। जहां पूर्ण सच्ची श्रद्धा होती है, वहीं मैं प्रकट होता हूं।'



जब मन में किसी भी प्रकार का भय, संदेह न होकर सिर्फ उत्साहपूर्वक विश्वास होता है तो ईश्वर को स्वयं प्रकट होना पड़ता है अथवा भक्त की मनोकामना पूर्ति के लिए बाध्य होना पड़ता है, जैसे भक्त प्रह्लाद के साथ हुआ इसलिए जब कभी आप ईश्वर से कुछ मांगें तो पूर्ण श्रद्धा, विश्वास, समर्पण के साथ मांगें। अगर आपकी मांग आपके लिए कल्याणकारी होगी तो आपको मांगी वस्तु की निश्चित ही प्राप्ति होगी।

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