जीवन नैय्या को आगे बढ़ाने में गुरु का सबसे बड़ा योगदान होता है, गुरु व्यक्ति को खुद पर भरोसा करना सिखाता है कि, ‘तैरना शुरू करो, घबराओ नहीं, अगर डूबोगे तो मैं हूं न तुम्हें बचाने के लिए।’ गुरु वास्तव में कोई व्यक्ति नहीं, अपितु उसके भीतर निहित ज्ञान है। गुरु की पूजा व्यक्ति की पूजा न होकर, गुरु की देह में समाहित ज्ञान की पूजा है। यह निश्चित है कि जो ईश्वर को पाना चाहता है, वह बिना गुरु के एक पग भी नहीं चल सकता। वास्तव में गुरु और शिष्य, दो दिखते हुए भी दो नहीं होते, देखा जाए तो गुरु और शिष्य के संबंध एकात्मक होते हैं।
ज्ञान, विश्वास, गुरु और काल, इन चारों का अपना-अपना महत्व है। ज्ञान में ध्यान हो, विश्वास में श्रद्धा हो, अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाले गुरुदेव हों और आषाढ़ पूर्णिमा की पावन तिथि हो, तो इस दुर्लभ संयोग का महत्व असीमित हो जाता है।
वास्तविक गुरु की पहचान यह है कि जो उसके आस-पास से गुजरता है, वह उसका हो जाता है, जो उसकी आंखों से आंख मिला लेता है, उसका हरण हो जाता है और गुरु उसकी सारी बाधाएं हर लेता है। पुरानी कहावत सदैव याद रखनी चाहिए, ‘पानी पीजै छानकर और गुरु कीजै जानकर’। शिष्य की श्रद्धा ही गुरु को खींच लाती है, गुरु को पहचानने का साधन है शिष्य की आत्मा। श्रीमद्भागवत में स्वयं भगवान का कथन है,
तावत परिचरेद् भक्तः श्रद्धावान न सूचकः। यावत् ब्रह्मा विजानीयानममेव गुरुमादतः।।
गुरु के प्रति सम्मान और श्रद्धा, भक्ति और दृढ़ विश्वास रखते हुए ब्रह्मा की प्राप्ति का मार्गदर्शन होने तक अपने गुरु में अगाध श्रद्धा व विश्वास रखें, तनिक भी शंका न करें। शिष्य की पाचन शक्ति के अनुसार ही गुरु ज्ञान का स्तर तय करता है। गुरु ज्ञान के बीज को बोता है, शिष्य की क्षमता को समय की आवश्यकता के अनुरूप बढ़ाता है। शिष्य की प्रकृति, संस्कार, रुचि, सामर्थ्य के अनुसार ही गुरु ज्ञान को उत्पन्न करता है।
गुरु कृपा ही केवलं, शिष्य परम मंगलम।
गुरु मंत्र का अर्थ है दीक्षा के समय दिया गया गोपनीय मंत्र, दीक्षा का अर्थ उपदेश भी है। जो शिष्य नित्य गुरु मंत्र को जपता है, और गुरु द्वारा बताए वचनों पर चलता है, वह शीघ्र ही सफलता प्राप्त करता है।
पुनर्जन्म न विधते
गंगा, गीता, गायत्री, गुरु, इन्हें जिसने भी सच्चे हृदय से आत्मा में धारण कर लिया, धर्मशास्त्र अनुसार पुनर्जन्म न विधते, यानि उसका फिर मोक्ष हो ही जाता है।
ज्ञान, विश्वास, गुरु और काल, इन चारों का अपना-अपना महत्व है। ज्ञान में ध्यान हो, विश्वास में श्रद्धा हो, अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाले गुरुदेव हों और आषाढ़ पूर्णिमा की पावन तिथि हो, तो इस दुर्लभ संयोग का महत्व असीमित हो जाता है।
वास्तविक गुरु की पहचान यह है कि जो उसके आस-पास से गुजरता है, वह उसका हो जाता है, जो उसकी आंखों से आंख मिला लेता है, उसका हरण हो जाता है और गुरु उसकी सारी बाधाएं हर लेता है। पुरानी कहावत सदैव याद रखनी चाहिए, ‘पानी पीजै छानकर और गुरु कीजै जानकर’। शिष्य की श्रद्धा ही गुरु को खींच लाती है, गुरु को पहचानने का साधन है शिष्य की आत्मा। श्रीमद्भागवत में स्वयं भगवान का कथन है,
तावत परिचरेद् भक्तः श्रद्धावान न सूचकः। यावत् ब्रह्मा विजानीयानममेव गुरुमादतः।।
गुरु के प्रति सम्मान और श्रद्धा, भक्ति और दृढ़ विश्वास रखते हुए ब्रह्मा की प्राप्ति का मार्गदर्शन होने तक अपने गुरु में अगाध श्रद्धा व विश्वास रखें, तनिक भी शंका न करें। शिष्य की पाचन शक्ति के अनुसार ही गुरु ज्ञान का स्तर तय करता है। गुरु ज्ञान के बीज को बोता है, शिष्य की क्षमता को समय की आवश्यकता के अनुरूप बढ़ाता है। शिष्य की प्रकृति, संस्कार, रुचि, सामर्थ्य के अनुसार ही गुरु ज्ञान को उत्पन्न करता है।
गुरु कृपा ही केवलं, शिष्य परम मंगलम।
गुरु मंत्र का अर्थ है दीक्षा के समय दिया गया गोपनीय मंत्र, दीक्षा का अर्थ उपदेश भी है। जो शिष्य नित्य गुरु मंत्र को जपता है, और गुरु द्वारा बताए वचनों पर चलता है, वह शीघ्र ही सफलता प्राप्त करता है।
पुनर्जन्म न विधते
गंगा, गीता, गायत्री, गुरु, इन्हें जिसने भी सच्चे हृदय से आत्मा में धारण कर लिया, धर्मशास्त्र अनुसार पुनर्जन्म न विधते, यानि उसका फिर मोक्ष हो ही जाता है।
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