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पुरस्कार दे दे बाबा!

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घर पर भारी चहल-पहल के बीच सुधर्मा मेहमानों को संभालने में व्यस्त थीं। पार्टी सुधर्मा को बाल श्रम उन्मूलन पुरस्कार मिलने के लिए थी। बीच-बीच में बलिहारी नजरों से वह सुखनंदन को निहार भी रही थीं। सुखनंदन बाल श्रम उन्मूलन विभाग के मुखिया हैं। 'बधाई हो साहब! ट्रंप को नोबेल नहीं मिल पाया, लेकिन, मैडम को ग्लोबल अवॉर्ड मिल गया', मातहत ने सुखनंदन के पैर छूते हुए कहा। सुखनंदन ने चाय का कप 11 साल की नौकरानी को थमाया, गंभीर आवाज में बोले, 'जयचंद! पुरस्कार मांगने से मिलता है न छीनने से।



यह वक्त पर'सही' करने और कभी-कभी कुछ न करने पर मिलता है। ओबामा को ही देख लो, नोबेल पाने के एक दशक बाद भी उनको समझ में नहीं आया कि पुरस्कार मिला क्यों? बेचारे अपनी आत्मकथा में खुद ही पूछ बैठे। पुरस्कार की यही माया है।' 'तनिक विस्तार से समझाइए सरकार!', जयचंद ने गुजारिश की। 'सुनो, बचपन से ही परिक्रमा की कथा सुनाई-सिखाई गई है। अथक प्रयास,अनगिनत दूरी का उपक्रम भी समर्थ के सानिध्य, संतुष्टि के आगे शून्य है। पुरस्कार मान नहीं, मेहरबानी का विस्तार है। प्रेरणा नहीं, प्रचार है। इसलिए जो समझदार हैं वह कार्य नहीं, उस कार्यकारिणी पर केंद्रित करते हैं जिसको पुरस्कार तय करना है।'



सुखनंदन ने बात आगे बढ़ाई, 'कार्यकारिणी को साधने के लिए 'करणीय' कार्य की जानकारी आवश्यक है। यह अर्थ, विचारों की साम्यता, दूसरे पुरस्कार की कार्यकारिणी में आपके शामिल होने की संभाव्यता, पदों पर उपकृत करने की उपादेयता के रूप में भी हो सकता है।' 'लेकिन, पुरस्कार वापस करने वाले प्रेरक प्राणी तो अब भी हैं', दूर से सुधर्मा की आवाज आई। सुखनंदन मुस्कराते हुए बोले, 'वह वापसी नहीं, वैचारिकी का व्यापार है प्रिये। लोग वह पत्र वापस करते हैं जिस पर प्रशस्ति लिखी होती है, अर्थ नहीं, क्योंकि, उससे प्रशस्ति कभी भी खरीदी जा सकती है। अत: ये पुरस्कार वापस नहीं करते, बल्कि दूसरे पुरस्कार की राह खेलते हैं।



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