नई शर्तें तय कर रहे अमेरिका-चीन!
वर्तमान में वैश्विक राजनीति और अर्थव्यवस्था एक महत्वपूर्ण मोड़ पर है। अमेरिका और चीन, जो कि विश्व के दो प्रमुख शक्तिशाली देश हैं, अब वैश्विक सहयोग के दिशा-निर्देश और नियमों को निर्धारित कर रहे हैं। पहले की तरह यह सहयोग सभी देशों के लिए समान नहीं रह गया है, बल्कि अब यह इन दोनों शक्तियों की शर्तों पर निर्भर करता है।
ट्रंप प्रशासन के दौरान अमेरिका ने स्पष्ट कर दिया था कि ‘मुक्त व्यापार’ और ‘वैश्विक सहयोग’ केवल दिखावे की बातें हैं। उन्होंने टैरिफ बढ़ाए, कई देशों की आर्थिक सहायता को रोका और संयुक्त राष्ट्र, WTO, NATO जैसे संगठनों से दूरी बनाई। इसका अर्थ यह था कि अमेरिका अब अपनी मर्जी से ही वैश्विक संबंध बनाएगा, न कि किसी बहुपक्षीय नियम के तहत।
क्या वैश्वीकरण का सपना टूट गया?90 के दशक के बाद जब वैश्विक व्यापार का विस्तार हुआ और ‘वैश्वीकरण’ का युग शुरू हुआ, तब यह माना गया कि इससे सभी देशों को लाभ होगा। लेकिन वास्तविकता इसके विपरीत रही; कुछ समृद्ध देशों और उनके उद्योगपतियों की संपत्ति में वृद्धि हुई, जबकि गरीब देशों के श्रमिक और आम नागरिक पीछे रह गए। शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार की स्थिति बिगड़ती गई, जबकि अमीरों के पास अरबों का मुनाफा बढ़ता गया।
वैश्विक सहयोग के तीन युगऔद्योगिक क्रांति के बाद से अब तक वैश्विक सहयोग के तीन प्रमुख चरण आए हैं। पहला, जब यूरोपीय साम्राज्य जैसे ब्रिटेन ने अपने उपनिवेशों से कच्चा माल लिया और बदले में उन पर भारी टैक्स लगाए। दूसरा, शीत युद्ध के दौरान जब अमेरिका और सोवियत संघ ने अपने सहयोगी देशों का आर्थिक और सैन्य नेटवर्क बनाया। तीसरा, शीत युद्ध के बाद, जब अमेरिका एकमात्र वैश्विक शक्ति बन गया और मुक्त व्यापार का प्रचार किया। लेकिन अब यह तीसरा चरण समाप्त होता दिख रहा है, और अमेरिका-चीन दोनों अपने-अपने हितों की रक्षा में जुटे हैं।
भारत के लिए चुनौतीपूर्ण स्थितिअब अमेरिका और चीन किसी देश से यह नहीं कह रहे हैं कि वह उनके गुट में शामिल हो जाए, लेकिन दोनों की अपनी-अपनी शर्तें हैं। अमेरिका चाहता है कि भारत रूस से तेल न खरीदे और कुछ मुद्दों पर चुप रहे, जबकि चीन चाहता है कि भारत सीमा विवाद या हिंद महासागर में उसके बढ़ते प्रभाव पर ज्यादा न बोले। ऐसे में भारत जैसे देशों के लिए संतुलन बनाना बेहद कठिन हो गया है। उसे अपने हितों की रक्षा करते हुए दोनों महाशक्तियों के दबाव से भी बचना होगा।
भारत को क्या कदम उठाने चाहिए?इतिहास से यह स्पष्ट है कि आर्थिक सहयोग हमेशा किसी न किसी शक्तिशाली देश के नियंत्रण में रहा है। आज भी यही स्थिति है, बस नाम और तरीके बदल गए हैं। ऐसे में भारत को चाहिए कि वह अपने पूर्व अनुभवों से सीखते हुए किसी एक शक्ति के अधीन न होकर अपनी स्वतंत्र नीति बनाए।
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