डॉ. भरत सुपरा
जब पश्चिम एशिया में भू-राजनीतिक तनाव बढ़ता है, तो अधिकांश भारतीय न तो नक्शा उठाते हैं और न ही हर अपडेट को बारीकी से ट्रैक करते हैं। लेकिन वे पेट्रोल पंप की मीटर जरूर देखते हैं – और हाल में वह तेजी से भाग रहा है। ईरान और इज़राइल के बीच टकराव के चलते ब्रेंट क्रूड की कीमतें बढ़ रही हैं। दुनिया कूटनीतिक समाधान की प्रतीक्षा कर रही है, और भारत में आम परिवार एक नई आर्थिक मार के लिए खुद को तैयार कर रहे हैं - महंगे राशन और सख्त बजट के रूप में।
भारत अपनी कच्चे तेल की 85% से अधिक आवश्यकता आयात करता है। यह केवल एक आर्थिक आंकड़ा नहीं, बल्कि एक रणनीतिक कमजोरी है। कच्चे तेल की हर एक डॉलर की बढ़ोतरी हमारे चालू खाता घाटे को बढ़ाती है, रुपये पर दबाव बनाती है, और अंततः यह असर आम आदमी की थाली तक पहुंचता है।
तेल से प्याज़ तक : महंगाई की यात्रा
अधिकांश लोगों को लगता है कि महंगाई की शुरुआत भारतीय रिजर्व बैंक के बोर्डरूम से होती है। असल में, यह सड़क पर शुरू होती है - उस ट्रक ड्राइवर से, जिसे डीजल के लिए ₹3 अधिक देने पड़ते हैं। यह अतिरिक्त लागत वहीं नहीं रुकती, बल्कि सब्ज़ियों, किराने का सामान, इलेक्ट्रॉनिक्स और दवाओं के परिवहन में घुलती चली जाती है।
यह मूल्य संचरण (प्राइस ट्रांसमिशन) का सबसे चुपचाप बढ़ने वाला रूप है - जो लॉजिस्टिक लागत के ज़रिए थोक मूल्य को बढ़ाता है और अंततः खुदरा स्तर पर मार्जिन को घटाता है। जब परिवहन महंगा होता है, तो दूध, दाल और अंडे भी महंगे हो जाते हैं - और ऐसा इसलिए नहीं होता कि गाय या मुर्गियां महंगी हो गई हों।
उदाहरण के लिए, अप्रैल 2024 में थोक टमाटर की कीमतों में 21% की बढ़ोतरी हुई। इसमें से लगभग आधी वजह परिवहन लागत थी। विडंबना यह थी कि टमाटरों की आपूर्ति में कोई कमी नहीं थी, सिर्फ उन्हें ढोना महंगा हो गया था। यह प्रभाव देश की हर परत को छूता है - किराना दुकानदार से लेकर कैब ड्राइवर तक, सप्लाई चेन मैनेजर से लेकर नाश्ते बेचने वाले ठेले तक। ईंधन मूल्य एक छिपा हुआ टैक्स बन जाता है - हर उस चीज़ में जिसका हम उपभोग करते हैं।
शहर बनाम गांव : अलग रास्ते, एक सी दीवार
शहरी भारत में ईंधन महंगाई का असर पेट्रोल पंप, फूड डिलीवरी ऐप और हवाई किरायों में नजर आता है। मध्यमवर्गीय परिवार गैर-ज़रूरी खर्च टालते हैं - छुट्टियां स्थगित कर देते हैं, ऑफिस के लिए कारपूल करते हैं और वीकेंड डिनर की जगह नेटफ्लिक्स और पॉटलक पर निर्भर हो जाते हैं। ये असुविधाएं हैं - लेकिन झेली जा सकती हैं।
ग्रामीण भारत के लिए यह असर कहीं ज्यादा गहरा है। गांवों में डीजल सिर्फ गाड़ियों के लिए नहीं होता, बल्कि सिंचाई पंप, हार्वेस्टर और ट्रैक्टर भी इसी पर चलते हैं। डीजल महंगा होने का मतलब है - खेती महंगी, फसल की लागत अधिक - लेकिन बिक्री मूल्य में कोई खास बढ़त नहीं। इसका परिणाम? पहले से ही सीमित मार्जिन में जी रहे किसानों के लिए और घाटा।
और भी बुरा यह है कि गांवों में यह महंगाई 'विकल्पों का संकट' बन जाती है। लोग कैब से बस में नहीं जाते, बल्कि पौष्टिक भोजन की जगह सिर्फ स्टार्च पर निर्भर हो जाते हैं; अमेज़न की जगह नहीं, बल्कि स्कूल फीस की जगह कर्ज चुकाना प्राथमिकता बन जाती है। ईंधन महंगाई सिर्फ आर्थिक नहीं, बल्कि पोषण, शिक्षा और मानसिक स्वास्थ्य का भी संकट बन जाती है।
सहो, नया सोचो या बोझ उपभोक्ता पर
जिन कंपनियों पर ईंधन की लागत बढ़ने का असर पड़ता है, उनके पास तीन विकल्प होते हैं - या तो लागत सहें और मुनाफा घटाएं, या नई तकनीक अपनाएं और खर्च घटाएं, या फिर यह बोझ ग्राहकों पर डालें।
FMCG कंपनियां सबसे पहले श्रिंकफ्लेशन का सहारा लेती हैं - पैकेट का साइज छोटा कर देते हैं, लेकिन दाम वही रहते हैं। ₹10 की चिप्स अब 25 ग्राम की जगह 22 ग्राम में मिलने लगती है। फिर धीरे-धीरे MRP भी बढ़ा दी जाती है। पहले ग्रामीण मांग कमजोर पड़ती है, फिर शहरों में भी उपभोक्ता सतर्क हो जाते हैं।
Zomato और Swiggy जैसे डिलीवरी प्लेटफॉर्म अब फ्यूल कन्वीनियंस फीस जोड़ने लगे हैं। बजट एयरलाइंस ने ईंधन अधिभार (फ्यूल सरचार्ज) फिर से जोड़ना शुरू कर दिया है। लॉजिस्टिक कंपनियां डीजल कीमतों के अनुसार दरें समायोजित करती हैं। मतलब यह कि – "आप अधिक भुगतान करेंगे, लेकिन आपको ठीक से पता नहीं चलेगा कैसे।"
कुछ कंपनियां इन हालातों में इनोवेशन कर रही हैं - मजबूरी में, करुणा से नहीं। शहरी इलाकों में डीजल वैन की जगह अब ईवी (इलेक्ट्रिक व्हीकल) आ रही हैं। एआई आधारित रूट मैपिंग से डिलीवरी की दूरी घटाई जा रही है। ये सब प्रयास मददगार हैं, लेकिन कच्चे तेल की असली मार को रोक नहीं सकते। स्टार्टअप और एमएसएमई जैसे छोटे व्यवसायों के पास न हेजिंग की ताकत है, न दाम बढ़ाने की। वे अक्सर चुपचाप स्टाफ कम करते हैं, संचालन घटाते हैं, या कर्ज लेते हैं - जिससे पहले से ही कर्ज में डूबी अर्थव्यवस्था पर और बोझ बढ़ता है।
भारत की ईंधन पर निर्भरता हर बाहरी झटके को कई गुना बड़ा बना देती है। सरकारें कई बार एक्साइज ड्यूटी घटाकर या सब्सिडी देकर अस्थायी राहत देती हैं, लेकिन दीर्घकालीन समाधान फॉसिल फ्यूल पर निर्भरता घटाना, ऊर्जा आयात में विविधता लाना, और लचीली, विकेंद्रीकृत आपूर्ति श्रृंखलाओं में निवेश करना है।
महंगाई पर कोई जीएसटी नहीं है - लेकिन इसका असर कहीं ज्यादा असमान होता है। इसका बोझ सबसे ज्यादा उन लोगों पर पड़ता है जिनके पास विकल्प सबसे कम हैं। आम भारतीय परिवार के लिए पश्चिम एशिया में चल रही राजनीति कोई दूर की हलचल नहीं, बल्कि उनके रोजमर्रा जीवन में सीधे असर करने वाला भूकंप है।
डॉ. भरत सुपरा, एसोसिएट प्रोफेसर एवं एमबीए प्रोग्राम चेयर, स्कूल ऑफ़ बिजनेस मैनेजमेंट (SBM), नवी मुंबई, एसवीकेएम का एनएमआईएमएस (NMIMS)
जब पश्चिम एशिया में भू-राजनीतिक तनाव बढ़ता है, तो अधिकांश भारतीय न तो नक्शा उठाते हैं और न ही हर अपडेट को बारीकी से ट्रैक करते हैं। लेकिन वे पेट्रोल पंप की मीटर जरूर देखते हैं – और हाल में वह तेजी से भाग रहा है। ईरान और इज़राइल के बीच टकराव के चलते ब्रेंट क्रूड की कीमतें बढ़ रही हैं। दुनिया कूटनीतिक समाधान की प्रतीक्षा कर रही है, और भारत में आम परिवार एक नई आर्थिक मार के लिए खुद को तैयार कर रहे हैं - महंगे राशन और सख्त बजट के रूप में।
भारत अपनी कच्चे तेल की 85% से अधिक आवश्यकता आयात करता है। यह केवल एक आर्थिक आंकड़ा नहीं, बल्कि एक रणनीतिक कमजोरी है। कच्चे तेल की हर एक डॉलर की बढ़ोतरी हमारे चालू खाता घाटे को बढ़ाती है, रुपये पर दबाव बनाती है, और अंततः यह असर आम आदमी की थाली तक पहुंचता है।
तेल से प्याज़ तक : महंगाई की यात्रा
अधिकांश लोगों को लगता है कि महंगाई की शुरुआत भारतीय रिजर्व बैंक के बोर्डरूम से होती है। असल में, यह सड़क पर शुरू होती है - उस ट्रक ड्राइवर से, जिसे डीजल के लिए ₹3 अधिक देने पड़ते हैं। यह अतिरिक्त लागत वहीं नहीं रुकती, बल्कि सब्ज़ियों, किराने का सामान, इलेक्ट्रॉनिक्स और दवाओं के परिवहन में घुलती चली जाती है।
यह मूल्य संचरण (प्राइस ट्रांसमिशन) का सबसे चुपचाप बढ़ने वाला रूप है - जो लॉजिस्टिक लागत के ज़रिए थोक मूल्य को बढ़ाता है और अंततः खुदरा स्तर पर मार्जिन को घटाता है। जब परिवहन महंगा होता है, तो दूध, दाल और अंडे भी महंगे हो जाते हैं - और ऐसा इसलिए नहीं होता कि गाय या मुर्गियां महंगी हो गई हों।
उदाहरण के लिए, अप्रैल 2024 में थोक टमाटर की कीमतों में 21% की बढ़ोतरी हुई। इसमें से लगभग आधी वजह परिवहन लागत थी। विडंबना यह थी कि टमाटरों की आपूर्ति में कोई कमी नहीं थी, सिर्फ उन्हें ढोना महंगा हो गया था। यह प्रभाव देश की हर परत को छूता है - किराना दुकानदार से लेकर कैब ड्राइवर तक, सप्लाई चेन मैनेजर से लेकर नाश्ते बेचने वाले ठेले तक। ईंधन मूल्य एक छिपा हुआ टैक्स बन जाता है - हर उस चीज़ में जिसका हम उपभोग करते हैं।
शहर बनाम गांव : अलग रास्ते, एक सी दीवार
शहरी भारत में ईंधन महंगाई का असर पेट्रोल पंप, फूड डिलीवरी ऐप और हवाई किरायों में नजर आता है। मध्यमवर्गीय परिवार गैर-ज़रूरी खर्च टालते हैं - छुट्टियां स्थगित कर देते हैं, ऑफिस के लिए कारपूल करते हैं और वीकेंड डिनर की जगह नेटफ्लिक्स और पॉटलक पर निर्भर हो जाते हैं। ये असुविधाएं हैं - लेकिन झेली जा सकती हैं।
ग्रामीण भारत के लिए यह असर कहीं ज्यादा गहरा है। गांवों में डीजल सिर्फ गाड़ियों के लिए नहीं होता, बल्कि सिंचाई पंप, हार्वेस्टर और ट्रैक्टर भी इसी पर चलते हैं। डीजल महंगा होने का मतलब है - खेती महंगी, फसल की लागत अधिक - लेकिन बिक्री मूल्य में कोई खास बढ़त नहीं। इसका परिणाम? पहले से ही सीमित मार्जिन में जी रहे किसानों के लिए और घाटा।
और भी बुरा यह है कि गांवों में यह महंगाई 'विकल्पों का संकट' बन जाती है। लोग कैब से बस में नहीं जाते, बल्कि पौष्टिक भोजन की जगह सिर्फ स्टार्च पर निर्भर हो जाते हैं; अमेज़न की जगह नहीं, बल्कि स्कूल फीस की जगह कर्ज चुकाना प्राथमिकता बन जाती है। ईंधन महंगाई सिर्फ आर्थिक नहीं, बल्कि पोषण, शिक्षा और मानसिक स्वास्थ्य का भी संकट बन जाती है।
सहो, नया सोचो या बोझ उपभोक्ता पर
जिन कंपनियों पर ईंधन की लागत बढ़ने का असर पड़ता है, उनके पास तीन विकल्प होते हैं - या तो लागत सहें और मुनाफा घटाएं, या नई तकनीक अपनाएं और खर्च घटाएं, या फिर यह बोझ ग्राहकों पर डालें।
FMCG कंपनियां सबसे पहले श्रिंकफ्लेशन का सहारा लेती हैं - पैकेट का साइज छोटा कर देते हैं, लेकिन दाम वही रहते हैं। ₹10 की चिप्स अब 25 ग्राम की जगह 22 ग्राम में मिलने लगती है। फिर धीरे-धीरे MRP भी बढ़ा दी जाती है। पहले ग्रामीण मांग कमजोर पड़ती है, फिर शहरों में भी उपभोक्ता सतर्क हो जाते हैं।
Zomato और Swiggy जैसे डिलीवरी प्लेटफॉर्म अब फ्यूल कन्वीनियंस फीस जोड़ने लगे हैं। बजट एयरलाइंस ने ईंधन अधिभार (फ्यूल सरचार्ज) फिर से जोड़ना शुरू कर दिया है। लॉजिस्टिक कंपनियां डीजल कीमतों के अनुसार दरें समायोजित करती हैं। मतलब यह कि – "आप अधिक भुगतान करेंगे, लेकिन आपको ठीक से पता नहीं चलेगा कैसे।"
कुछ कंपनियां इन हालातों में इनोवेशन कर रही हैं - मजबूरी में, करुणा से नहीं। शहरी इलाकों में डीजल वैन की जगह अब ईवी (इलेक्ट्रिक व्हीकल) आ रही हैं। एआई आधारित रूट मैपिंग से डिलीवरी की दूरी घटाई जा रही है। ये सब प्रयास मददगार हैं, लेकिन कच्चे तेल की असली मार को रोक नहीं सकते। स्टार्टअप और एमएसएमई जैसे छोटे व्यवसायों के पास न हेजिंग की ताकत है, न दाम बढ़ाने की। वे अक्सर चुपचाप स्टाफ कम करते हैं, संचालन घटाते हैं, या कर्ज लेते हैं - जिससे पहले से ही कर्ज में डूबी अर्थव्यवस्था पर और बोझ बढ़ता है।
भारत की ईंधन पर निर्भरता हर बाहरी झटके को कई गुना बड़ा बना देती है। सरकारें कई बार एक्साइज ड्यूटी घटाकर या सब्सिडी देकर अस्थायी राहत देती हैं, लेकिन दीर्घकालीन समाधान फॉसिल फ्यूल पर निर्भरता घटाना, ऊर्जा आयात में विविधता लाना, और लचीली, विकेंद्रीकृत आपूर्ति श्रृंखलाओं में निवेश करना है।
महंगाई पर कोई जीएसटी नहीं है - लेकिन इसका असर कहीं ज्यादा असमान होता है। इसका बोझ सबसे ज्यादा उन लोगों पर पड़ता है जिनके पास विकल्प सबसे कम हैं। आम भारतीय परिवार के लिए पश्चिम एशिया में चल रही राजनीति कोई दूर की हलचल नहीं, बल्कि उनके रोजमर्रा जीवन में सीधे असर करने वाला भूकंप है।
डॉ. भरत सुपरा, एसोसिएट प्रोफेसर एवं एमबीए प्रोग्राम चेयर, स्कूल ऑफ़ बिजनेस मैनेजमेंट (SBM), नवी मुंबई, एसवीकेएम का एनएमआईएमएस (NMIMS)
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