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बहस में न्यायालय और उप राष्ट्रपति की चिंता

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– डॉ. मयंक चतुर्वेदी

भारत के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने यह कहकर एक नई बहस को जन्‍म दिया है कि ‘देश ने ऐसे लोकतंत्र की कल्पना नहीं की थी, जहां जज कानून बनाएंगे, कार्यपालिका का काम भी खुद ही करेंगे और सुपर संसद की तरह काम करेंगे। अनुच्छेद-142 न्यायपालिका के लिए न्यूक्लियर मिसाइल बन गया है, लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को दरकिनार करने के लिए इसका उपयोग किया जा रहा है।’ उप राष्ट्रपति धनखड़ कानून के गहरे जानकार हैं। राजस्थान उच्च न्यायालय से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक में प्रैक्टिस कर चुके हैं। उप राष्ट्रपति बनने से पहले प. बंगाल जैसे चुनौतीपूर्ण राज्य में उप राज्यपाल रह चुके हैं। उस दौरान उन्होंने संविधान का भी गहरा अध्ययन किया और राज्यपाल से लेकर राष्ट्रपति के अधिकारों को समझा और समझाया। ऐसे विद्वान उप राष्ट्रपति यदि न्यायपालिका पर ही कोई प्रश्न खड़ा कर रहे हैं तो उसके निहितार्थ समझने होंगे।

देश के संविधान के अनुसार राष्ट्रपति और सुप्रीम कोर्ट के अलग-अलग कार्य निर्धारित हैं! यदि नियमों की बात की जाए तो भारत में विधायिका का काम कानून बनाना है, कार्यपालिका उन कानूनों को लागू करती है और न्यायपालिका कानून की व्याख्या करती है और विवादों का निपटारा करती है। इन तीनों के ऊपर है भारत का राष्‍ट्रपति, इसलिए ही वह (राष्ट्रपति) संघ का प्रमुख है और विधायिका, कार्यपालिका और न्‍यायपालिका की शक्तियां राष्ट्रपति में ही निहित बताई गई हैं। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति का अधिकार राष्ट्रपति के पास है। वह न्‍यायालय के सम्‍मान में ही सुप्रीम कोर्ट के कोलेजियम की सिफारिश पर ही न्यायाधीशों की नियुक्ति करते हैं। राष्‍ट्रपति के पास यह शक्‍ति भी है कि वह किस न्यायाधीश को उसके पद से हटाएं अथवा नहीं, यानी कि न्‍यायाधीशों को उनके पद से समय पूर्व या किसी भी अन्‍य कारण से हटाने का अधिकार भी राष्ट्रपति अपने पास रखते हैं। जब देश में किस भी मामले में कानून संबंधी सवाल खड़े होते हैं तब भी राष्‍ट्रपति के पास यह अधिकार सुरक्ष‍ित हैं कि वह तय करेंगे कि देश को किस ओर ले जाना है, इसके लिए राष्ट्रपति अदालत को निर्देशित भी कर सकते हैं।

इतना सब होने के साथ ही सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए मृत्युदंड के फैसले में सिर्फ राष्ट्रपति अपनी शक्‍ति का उपयोग कर अपराधी को क्षमादान दे सकते हैं। फिर राष्‍ट्रपति के पास तीनों सेनाओं का सुप्रीम कमांडर होने की भी शक्‍ति है। इस तरह देखें तो भारत के राष्ट्रपति की अपार शक्‍तियां हैं, जिन्‍हें किसी भी न्‍यायालय की सीमा में नहीं बांधा जा सकता, क्‍योंकि वह उससे भी ऊपर है। भारतीय संविधान कहता है कि राष्ट्रपति देश का सबसे बड़ा पद है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट न्यायपालिका की सबसे बड़ी इकाई होने के नाते देश के राष्ट्रपति को सलाह दे सकता है, लेकिन राष्ट्रपति सुप्रीम कोर्ट की सलाह को मानेंगे अथवा नहीं, यह राष्‍ट्रपति के विवेक पर छोड़ दिया गया है। यानी कि न्‍यायालय द्वारा दी गई किसी भी सलाह को मानना राष्‍ट्रपति के लिए स्‍पष्‍ट रूप से बाध्यकारी नहीं है।

कुल मिलाकर राष्‍ट्रपति में संपूर्ण राष्‍ट्र की शक्‍ति निहित है, अर्थात् विधायिका, कार्यपालिका और न्‍यायालय तीनों की शक्‍ति राष्‍ट्रपति पद में निहित है। पर यहां व्‍यवहार में क्‍या हो रहा है? जिस राष्‍ट्रपति को विधायिका चुनती है, और यह विधायिका किसी भी लोकतंत्र शासन प्रणाली में उस लोक के एक-एक चुने हुए जन प्रतिनिधि से बनती है, उस विधायिका की शक्‍ति को ही न्‍यायालय आज खुद से संचालित करते हुए देखा जा रहा है। जिस विधायिका और कार्यपालिका के माध्‍यम से चुने हुए जनता के प्रतिनिधि जनतंत्र को संचालित करने का काम करते हैं, आज न्‍यायालय उस पर ही कई तरह से अंकुश लगाने का काम कर रहा है। वास्‍तव में इसी का यह सबसे बड़ा उदाहरण है जिसमें कि सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में राष्ट्रपति और राज्यपालों को बिलों को मंजूरी देने की समयसीमा तय कर दी।

वस्‍तुत: इसी पर उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने नाराजगी जताई है। उन्‍हें कहना पड़ा है कि अदालतें राष्ट्रपति को आदेश नहीं दे सकतीं। हम ऐसे हालात नहीं बना सकते जहां अदालतें राष्ट्रपति को निर्देश दें। अब भले ही अनुच्छेद 142 भारत के सुप्रीम कोर्ट को यह अधिकार देता हो कि वह पूर्ण न्याय (कम्पलीट जस्टिस) करने के लिए कोई भी आदेश, निर्देश या फैसला दे सकता है, चाहे वह किसी भी मामले में हो। पर उसे भी यह सदैव याद रखना चाहिए कि लोकतंत्र में चुनी हुई सरकार सबसे अहम है और सभी संस्थाओं को अपनी-अपनी सीमाओं में रहकर काम करना चाहिए। कोई भी संस्था संविधान से ऊपर नहीं है।

उपराष्‍ट्रपति धनखड़ आज जो राष्ट्रपति द्वारा विधेयकों पर निर्णय लिये जाने के वास्ते समयसीमा निर्धारित करने संबंधी उच्चतम न्यायालय के फैसले पर चिंता जता रहे है, वह वाकई गंभीर है। क्‍योंकि भारत ने ऐसे लोकतंत्र की कल्पना नहीं की थी, जहां न्यायाधीश कानून बनाएंगे। आश्‍चर्य है, राष्ट्रपति को समयबद्ध तरीके से फैसला करने के लिए कहा जा रहा है और यदि ऐसा नहीं होता है, तो संबंधित विधेयक कानून बन जाता है। धनखड़ पूछ रहे हैं, हम कहां जा रहे हैं? देश में ये क्या हो रहा है? हमारे पास ऐसे न्यायाधीश हैं जो कानून बनाएंगे, जो कार्यपालिका का कार्य स्वयं संभालेंगे, जो ‘सुपर संसद’ के रूप में कार्य करेंगे और उनकी कोई जवाबदेही नहीं होगी, क्योंकि देश का कानून उन पर लागू नहीं होता!

वे सही कह रहे हैं, कि भारत में राष्ट्रपति संविधान की रक्षा, संरक्षण एवं बचाव की शपथ लेते हैं, जबकि मंत्री, उपराष्ट्रपति, सांसदों और न्यायाधीशों सहित अन्य लोग संविधान का पालन करने की शपथ लेते हैं। ‘हम ऐसी स्थिति नहीं बना सकते जहां आप भारत के राष्ट्रपति को निर्देश दें और वह भी किस आधार पर? संविधान के तहत आपके पास एकमात्र अधिकार अनुच्छेद 145(3) के तहत संविधान की व्याख्या करने का है उसके आधार पर। फिर भी इसके लिए पांच या उससे अधिक न्यायाधीशों की आवश्यकता होती है।’ उन्‍होंने यह भी सवाल उठाया है कि जब अनुच्छेद 145(3) तय हुआ था, तब सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीशों की संख्या आठ थी, उसमें भी इस प्रकार के निर्णय के लिए पांच या उससे भी अधिक न्‍यायाधीशों की आवश्‍यकता होती है, पर अब तो 30 से ऊपर हैं, तब फिर समझलीजिए कि यदि इस तरह का कोई निर्णय न्‍यायपालिका को लेना हो तो कितने जज होने चाहिए? पर जो फैसला तमिलनाडु सरकार और राज्यपाल के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने लिया है, और उसमें जिस तरह से राष्‍ट्रपति की शक्‍तियों को छोटा कर दिखाने का प्रयास हुआ है, वह कहीं से भी उचित नहीं ठहराया जा सकेगा।

यह भारतीय संविधानिक व्‍यवस्‍था में पहली बार हुआ है कि राज्यपाल के दस्तखत के बगैर सुप्रीम कोर्ट के आदेश से कोई विधेयक कानून बना और तमिलनाडु के सभी 10 लंबित विधेयकों को मंजूरी मिल गई। बेंच ने कहा कि राज्यपाल के पास पूर्ण या आंशिक वीटो का अधिकार नहीं है। वह विधानसभा से पास बिल को नहीं लटका सकता है। इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति को भी बताया है कि अगर राज्य का बिल उनके पास आता है तो उनको अनिवार्य रूप से सुप्रीम कोर्ट से मशविरा करना होगा और वे भी बिल को तीन महीने से ज्यादा नहीं रोक सकती हैं। इस तरह से न्यायाधीशों ने जो वस्तुतः राष्ट्रपति को एक आदेश जारी किया और एक परिदृश्य देश के सामने प्रस्तुत किया है, उससे यही लग रहा है कि न्यायालय में ही सबकी शक्ति निहित हो गई है। विधायिका और कार्यपालिका के अधिकार गौण हो गए हैं। सवाल यह भी उठ रहे हैं कि क्या संविधान में न्यायपालिका को दिए गए अधिकारों की क्या न्यायालय ही गलत कानूनी व्याख्या कर रहा है?

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हिन्दुस्थान समाचार

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