मशहूर कथक नृत्यांगना कुमुदिनी लाखिया का 12 अप्रैल को निधन हो गया.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कुमुदिनी लाखिया के निधन पर शोक जताते हुए लिखा कि भारतीय शास्त्रीय नृत्यों के प्रति जुनून उनके उल्लेखनीय कामों में झलकता था.
कथक नृत्य को अपनी कल्पनाशीलता और प्रस्तुति के माध्यम से एक नया आयाम देने वाली कुमुदिनी लाखिया को भारत सरकार ने पद्म विभूषण से सम्मानित किया था.
उनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने कथक की पारंपरिक सीमाओं से आगे बढ़ते हुए नृत्य को एक नई दिशा दी.

बीबीसी हिंदी के व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ने के लिए यहाँ करें
फ़िल्म प्रेमी उन्हें 'उमराव जान' फ़िल्म की कोरियोग्राफ़ी से जानते होंगे, जिसमें रेखा मुख्य भूमिका में थीं.
बीबीसी ने उनके शिष्य और प्रसिद्ध नृत्य दंपति इशिरा पारिख और मौलिक शाह से बात की. उन्होंने इस लेख में अपने गुरु को भावपूर्ण श्रद्धांजलि दी है.

बचपन से ही कला और साहित्य मेरे जीवन का हिस्सा रहे हैं. लेकिन कला का केवल आनंद लेना और उसमें पूरी तरह डूब जाना, दोनों में फ़र्क है. शास्त्रीय नृत्य को समझना और साधना करना कठिन होता है, क्योंकि वह समर्पण और अनुशासन मांगता है.
जब मैं पांच-छह साल की थी तो स्कूल में हर सांस्कृतिक कार्यक्रम में मुझे नृत्य के लिए चुना जाता था. मेरे अध्यापक कहते, "ये बड़ी होकर नृत्यांगना बनेगी."
उस वक्त मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं पेशेवर नृत्यांगना बनूंगी, लेकिन इतना ज़रूर पता था कि नृत्य हमेशा मेरे जीवन का हिस्सा रहेगा.
कुमुदिनीबेन जब अहमदाबाद में 'कदंब' नृत्य अकादमी की शुरुआत कर रही थीं, तब मेरे माता-पिता मुझे उनके कार्यक्रम दिखाने ले जाते थे. हर बार कथक देखकर मन में एक आकर्षण महसूस होता-जैसे यह कला मुझे बुला रही हो.
मुझे पता था कि मुझे यही नृत्य शैली सीखनी है, और यह भी कि मैं इसे किसी और से नहीं बल्कि कुमुदिनीबेन से ही सीखूँगी.

जब मैं उनसे पहली बार मिलने गई, तो उन्होंने कहा कि मैं अभी बहुत छोटी हूं और कुछ साल बाद आना चाहिए. कुछ साल बाद, मैंने उनकी शिष्या दक्षा बेन से कथक सीखना शुरू किया. मैं लगभग 10 या 12 साल की थी.
अंततः दक्षाबेन ने सुझाव दिया कि मैं आगे की ट्रेनिंग के लिए 'कदंब' जॉइन करूं, और इसी तरह कुमुदिनीबेन से कथक सीखने की मेरी यात्रा शुरू हुई.
वह हमेशा जोश और उत्साह से भरी रहती थीं. उनकी उपस्थिति से कक्षा जीवंत हो उठती थी, और हम हर दिन उत्साह से क्लास अटेंड करते और उनसे कुछ नया सीखते.
1970 के दशक के शुरुआती दौर में, भले ही कई लड़के-लड़कियाँ कथक सीखने आते थे, लेकिन आज की तुलना में तब छात्रों की संख्या काफी कम थी.
कुमुदिनीबेन न केवल एक असाधारण गुरु थीं, बल्कि उनका सिखाने का तरीका ऊर्जा से भरपूर होता था, जिससे छात्रों में एक नई ताजगी और प्रेरणा आ जाती थी. जैसे ही वह कक्षा में प्रवेश करतीं, माहौल जीवंत हो उठता. उनका जीवंत व्यक्तित्व हमारे लिए हमेशा प्रेरणा का स्रोत रहा.
कुमुदिनीबेन की सौंदर्य दृष्टि
जब हम उनसे सीख रहे थे, तब हमें एहसास हुआ कि उनके भीतर सौंदर्य बोध की एक विलक्षण समझ थी. यह समझ केवल नृत्य तक सीमित नहीं थी, बल्कि जीवन के हर पहलू में दिखाई देती थी.
चाहे वह नृत्य हो, बगीचे में पौधों की सजावट हो, या घर को किस तरह सहेज कर रखने का तरीका - हर चीज़ में उनकी सौंदर्य दृष्टि स्पष्ट झलकती थी.
उन्हें इस बात की गहरी समझ थी कि रोशनी, रंग और छाया कैसे काम करते हैं, और किसी वस्तु को किस तरह रखा जाए ताकि उसकी सुंदरता और भी उभरकर सामने आए.
म्यूज़ियम में चित्रों को देखने का तरीका हो या बगीचे में फूल-पौधों की साज-सज्जा—हर चीज़ में उनकी कलात्मक सोच झलकती थी.
उनका मानना था कि कलाकार होना केवल एक कला में निपुण होना नहीं है, बल्कि विभिन्न रचनात्मक विधाओं को समझना और अनुभव करना भी जरूरी है.
कुमुदिनीबेन का नृत्य को देखने का दृष्टिकोण बिल्कुल अलग था. उनकी माँ ने उन्हें नृत्य सीखने के लिए प्रोत्साहित किया, साथ ही यह भी सुनिश्चित किया कि पढ़ाई को भी उतनी ही प्राथमिकता दी जाए.
वे लखनऊ और लाहौर में रहीं, घुड़सवारी सीखी, और कृषि में स्नातक की डिग्री (बीएससी इन एग्रीकल्चर) हासिल की. जब वे 15 या 16 वर्ष की थीं, तब वे प्रसिद्ध कथक नर्तक राम गोपाल की नृत्य मंडली में शामिल हुईं और उनके साथ लंदन की यात्रा पर गईं.
वहाँ उन्होंने बैले डांस जैसे पश्चिमी नृत्य रूपों को देखा और यह कल्पना की कि इनकी कुछ विशेषताओं को कथक में कैसे जोड़ा जा सकता है.
भारत में जो नृत्य-नाट्य देखे जाते हैं, उनसे अलग वह एक डांस 'बैले' जैसा कुछ सोच रही थीं. राम गोपाल पहले से ही ऐसे प्रयोग कर रहे थे.
कुमुदिनीबेन बाद में अक्सर कहा करती थीं कि लंदन में बिताया गया समय उनके दृष्टिकोण को व्यापक करने वाला था.
उन्होंने भरतनाट्यम की भी विधिवत शिक्षा ली, लेकिन अंततः उनका समर्पण कथक को ही रहा.
भारत लौटने और विवाह के बाद वे दिल्ली आ गईं, जहाँ उन्होंने कथक के महान गुरु पंडित शंभू महाराज (पंडित बिरजू महाराज के चाचा) से प्रशिक्षण लिया.
उस समय दिल्ली में भारतीय कला केंद्र की स्थापना हुई थी और शंभू महाराज वहीं गुरु थे. कुमुदिनीबेन ने वहाँ तीन से चार साल बिताए और उनसे गहराई से कथक की बारीकियां सीखीं.
इसके अलावा उन्होंने सुंदर प्रसाद जी जैसे अन्य महान गुरुओं से भी ज्ञान प्राप्त किया.
कथक को मंच तक ले जाना
भारतीय शास्त्रीय नृत्य परंपरागत रूप से एकल प्रस्तुतियों का रूप रहा है. पुराने समय में ये प्रस्तुतियाँ राजदरबारों जैसे सीमित स्थानों में होती थीं, जहाँ दर्शकों के बीच कलाकार के पास बहुत कम जगह होती थी. इसलिए अधिकतर नर्तक एक ही स्थान पर स्थिर रहकर प्रदर्शन करते थे.
यह वो दौर था जब भारतीय शास्त्रीय नृत्य संकीर्ण स्थानों से निकलकर बड़े मंचों की ओर बढ़ रहा था. नृत्य अब एक 'प्रोसेनियम आर्ट' बन रहा था, जहाँ मंच पर बड़ी जगह होती थी और पूरा मंच कलाकार के लिए खुला था.
लेकिन सोचिए—अगर कोई नर्तक सीमित जगह के लिए बनी प्रस्तुति को विशाल मंच पर पेश करे, तो दर्शकों को कैसा लगेगा?
कुमुदिनीबेन ने इस प्रश्न का उत्तर अपने कथक के माध्यम से दिया. उन्होंने नर्तकों को दिखाया कि अब वे एक छोटी सी जगह नहीं बल्कि नृत्य में पूरे मंच का उपयोग कर सकते हैं. उन्होंने मंच का इस्तेमाल किस तरह से करना है, ये करके दिखाया.
एक संवेदनशील और दूरदर्शी नर्तकी के रूप में उन्होंने दर्शकों की नज़र से कला को देखा और मंच पर मौजूद बड़ी जगह का इस्तेमाल इस तरह किया कि प्रदर्शन की सुंदरता और भी निखर उठी.
नकल नहीं, मौलिकताभारतीय शास्त्रीय कलाओं में अक्सर गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण होता है, जिससे कई बार शिष्य केवल नकल करना सीखते हैं. लेकिन कुमुदिनीबेन ने हमें यह सिखाया कि हर कलाकार को अपनी खुद की शैली विकसित करनी चाहिए. उन्होंने हमेशा सवाल पूछने और संवाद की संस्कृति को बढ़ावा दिया.
उनकी सोच थी कि परंपरा में योगदान देना जरूरी है, अन्यथा वह ठहर जाती है. कल की समकालीन चीज़ें आज की परंपरा बन जाती हैं. उन्होंने हमेशा परिवर्तन और सुधार को महत्व दिया.
स्वतंत्रता के बाद, दिल्ली केंद्रित संस्थानों में कथक की पहचान बनी, लेकिन कुमुदिनीबेन ने अहमदाबाद में रहकर कथक की एक नई दुनिया बनाई. उन्होंने कदंब की नींव रखी. अपने पति और संगीतकार पंडित अतुल देसाई के सहयोग से एक संपूर्ण नृत्य संसार खड़ा किया.
एकल नृत्य से समूह तक
उन्होंने विषय-आधारित प्रस्तुतियों की शुरुआत की, जहाँ किसी लंबी कथा के स्थान पर अमूर्त अवधारणाओं को कथक के माध्यम से प्रस्तुत किया गया.
पारंपरिक रूप से कथक में दो मुख्य तत्व होते हैं—कथानक यानी कहानी कहना और नृत यानी लय और भाव के साथ नृत्य. कुमुदिनीबेन पहली डांसर थीं जिन्होंने यह सुझाव दिया कि नृत्य को कई नर्तक एक साथ प्रस्तुत कर सकते हैं, और इसी सोच ने कथक की कोरियोग्राफी में क्रांति ला दी.
उनके इन नए प्रयोगों का भारी विरोध हुआ. कई परंपरावादी कलाकारों ने, जो कथक की एक निश्चित परंपरा में यकीन रखते थे, उनके कार्य को कथक मानने से इनकार कर दिया.
उनके इन क्रांतिकारी प्रयासों से शुद्धतावादी घबरा गए. लेकिन इतिहास गवाह है कि जब लोग किसी नए विचार से डरते हैं, तो सबसे पहले वे उसकी आलोचना करते हैं.
विरोध के बावजूद कुमुदिनीबेन अपने कार्य में अडिग रहीं.
कथक गुरु कुमुदिनीबेनएक गुरु के रूप में कुमुदिनीबेन कभी अपने असंतोष को छिपाती नहीं थीं. अगर उन्हें कुछ पसंद नहीं आता, तो यह स्पष्ट हो जाता था.
वह कभी अपनी आवाज़ ऊँची करके, तो कभी चुप रहकर और नज़रअंदाज़ कर के अपनी नाराज़गी जाहिर करती थीं. लेकिन उन्होंने कभी मुझे या मौलिक को व्यक्तिगत रूप से नहीं डांटा. इस लिहाज़ से हम उनके "प्रिय शिष्य" थे.
इसका कारण था कि हम (मैं और मौलिक) बिना कहे समझ जाते थे कि वे प्रस्तुति में क्या चाहती हैं.

साल 1995 में जब हमने कथक डांस के 'अनार्त फ़ाउंडेशन' की स्थापना के लिए कदंब छोड़ा, तो हमारे और कुमुदिनीबेन के बीच थोड़ी दूरी आ गई थी. लेकिन वह हमेशा हमारी गुरु रहीं, और हमारे मन में उनके लिए जो प्रेम और आदर है, वह कभी कम नहीं हुआ.
अस्थायी गलतफहमियाँ थीं, पर समय के साथ वो दूर हो गईं. बाद में हम जब मिलें तो वह मुलाक़ात सदा स्नेहपूर्ण रही.
अगर हम कोई डांस रील सोशल मीडिया पर पोस्ट करते, तो कुमुदिनीबेन उसे देखतीं और तुरंत फोन कर के कहतीं—"मौलिक, बहुत अच्छा किया." जब मैं नृत्य के लिए कोई कविता लिखता, तो उन्हें बहुत प्रसन्नता होती है.
एक-दो साल पहले मैंने उनके लिए कुछ लिखा था, तब वे अत्यंत खुश हुईं. जब उन पर एक फिल्म बन रही थी, तो उन्होंने मुझे फोन कर के उस कविता की याद दिलाई और कहा, "फिल्म में तुम वह कविता ज़रूर पढ़ना."
कुमुदिनीबेन आज भी हमारे जीवन का एक अहम हिस्सा हैं—और हमेशा रहेंगी.
ये लेख कथक गुरु कुमुदिनीबेन के शिष्य और प्रसिद्ध नृत्य दंपति इशिरा पारिख और मौलिक शाह से बीबीसी गुजराती के संवाददाता पारस झा की बातचीत पर आधारित है.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.
(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां कर सकते हैं. आप हमें , , और पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)
You may also like
Hydrogen Gas Clouds Could Solve the Mystery of the Universe's Missing Matter, New Study Suggests
Google Offers Free Gemini Advanced for US Students Until Spring 2026 — Includes 2TB Storage, NotebookLM Plus, and More
GT vs DC: Jos Buttler's 97 Powers Record Chase, But His Praise for Rahul Tewatia Steals the Spotlight*
IPL 2025 Thriller: Lucknow Super Giants Edge Rajasthan Royals by 2 Runs in Nail-Biting Finish
'तुम्हारे नंबर से गाली दी जाती है', लेकिन बात करते-करते ही पहुंच गए ऐसी जगह जहां खुल गया सारा राज