बात सन 1943 की है. महाराष्ट्र में सांगली ज़िले के भवानी नगर के थाने में एक अजीब-सा दृश्य था. हौसा बाई पाटिल का पति नशे में उन्हें पुलिसवालों के सामने पीटता ही चला जा रहा था.
पीटने के बाद उनका पति एक बड़ा पत्थर उठाकर चिल्लाया, "मैं अभी इसी पत्थर से तुम्हें मार डालूँगा."
ये सुनकर बाहर खड़े दो पुलिस वाले कमरे के अंदर चले गए, शायद वे उनकी हत्या के गवाह नहीं बनना चाहते थे.
हौसा बाई ने बाद में बताया, "पुलिसवालों ने हमारे बीच मेल-मिलाप कराने की कोशिश की. वहाँ पर मेरा एक भाई भी मौजूद था. मैंने उससे विनती की कि मुझे अपने पति के घर वापस न जाने दे. मैंने कहा कि मैं किसी भी क़ीमत पर इसके साथ नहीं जाऊँगी. मैं यहीं रहूँगी. मुझे अपने घर के पास एक छोटी सी जगह दे दो. लेकिन मेरे भाई ने मेरी बात नहीं मानी."
पुलिस वालों ने हौसा बाई और उनके पति को समझाने की कोशिश की.
उन्होंने दोनों को डाँटा भी, आख़िरकार वे दोनों के बीच किसी तरह सुलह कराने में कामयाब हो गए. वे उन्हें अपने साथ लेकर रेलवे स्टेशन तक छोड़ने गए.
लुट गए थाने के हथियारजाने-माने पत्रकार पी. साईनाथ अपनी किताब 'द लास्ट हीरोज़, फ़ुट-सोल्जर्स ऑफ़ इंडियन फ़्रीडम' में लिखते हैं, "पुलिस वालों की ग़ैर-हाज़िरी में हौसा बाई के साथियों ने थाने को लूट लिया था. वे वहाँ से चार बंदूक़ें और कारतूस लेकर फ़रार हो गए थे."
"हौसा बाई और उनके नक़ली 'शराबी पति' और 'भाई' ने पुलिस को चकमा देने के लिए लड़ाई का ड्रामा किया था. उस समय हौसा बाई की उम्र 17 साल की थी. उनकी शादी हुए तीन साल हो चुके थे और उनका एक बच्चा भी था."
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उस घटना के क़रीब 74 साल बाद सांगली ज़िले में अपने गाँव वीता में दिए एक इंटरव्यू में हौसा बाई ने हँसते हुए कहा था, "मैं अब भी अपने नक़ली पति से बहुत नाराज़ हूँ जिसने लड़ाई को असली दिखाने के लिए मेरी बुरी तरह से पिटाई की थी. मैंने बाद में उसे मुझे बुरी तरह से पीटने के लिए उलाहना भी दिया लेकिन उसका कहना था कि लड़ाई को वास्तविक दिखाने के लिए ऐसा करना ज़रूरी था. पुलिस वालों को थाने से बाहर निकालने के लिए यही एक तरीक़ा था."
हौसा बाई और इस कथित लड़ाई में भाग लेने वाले दो अभिनेता 'तूफ़ान सेना' के सदस्य थे.
'तूफ़ान सेना' सतारा ज़िले की एक समानांतर सरकार या 'प्रति-सरकार' की सशस्त्र इकाई थी जिसने साल 1943 में ब्रिटिश सरकार से आज़ादी का ऐलान कर दिया था.
'प्रति सरकार' का मुख्यालय कुंदल में हुआ करता था. ये किसानों और मज़दूरों का एक संगठन था.
इसके अंतर्गत क़रीब 600 गाँव आते थे जिन्होंने ब्रिटिश सरकार की अधीनता मानने से इनकार कर दिया था.
पी साईनाथ लिखते हैं, "प्रति सरकार और तूफ़ान सेना दोनों 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान उभरे थे जिनका आज़ादी की परंपरागत लड़ाई से मोहभंग हो चुका था. वे एक तरह की समानांतर सरकार चला रहे थे जिसे उस इलाक़े के लोग वैध सरकार मानते थे. उस ज़माने में सतारा एक बड़ा क्षेत्र हुआ करता था जिसका वर्तमान सांगली ज़िला भी हिस्सा हुआ करता था."
हौसा बाई को हौसा ताई भी कहा जाता था, सन 1943 से 1946 के बीच वह क्रांतिकारियों के दल की सदस्य थीं जो ब्रिटिश ट्रेनों पर हमला करते थे, पुलिस थानों से हथियार लूटते थे और अंग्रेज़ अफ़सरों के ठहरने के लिए बने डाक बंगलों में आग लगाते थे.

तूफ़ान सेना के सदस्य रहे भाऊ लाड ने एक इंटरव्यू में बताया था, "तूफ़ान सेना अक्सर रेलवे लाइन पर बड़े पत्थर रखकर ट्रेनों को रोक लेती थी. ट्रेन के रुकने के बाद उसके लोग आख़िरी डिब्बे के पीछे भी पत्थर रख देते थे ताकि ट्रेन पीछे भी न जा सके. उनके पास हँसिया, लाठी और हाथ से बनाए गए बम हुआ करते थे."
"उस ज़माने में ट्रेन के मुख्य गार्ड के पास बंदूक़ हुआ करती थी लेकिन लोग उसे काबू में कर लिया करते थे. तूफ़ान सेना का काम ट्रेन से भेजे जा रहे धन को लूटना होता था. एक बार उन्होंने इसी तरह ट्रेन रोक कर पाँच लाख 51 हज़ार रुपये लूटे थे जो उन दिनों बहुत बड़ी रक़म थी. इस तरह लूटा हुआ धन प्रति सरकार, ग़रीब और ज़रूरतमंद लोगों को जाता था."
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हौसा बाई का जन्म 12 फ़रवरी, 1926 को हुआ था. सिर्फ़ 14 साल की उम्र में उनका विवाह हो गया था. सन 1944 में उन्होंने गोवा में पुर्तगाल सरकार के ख़िलाफ़ भूमिगत आंदोलन में भी भाग लिया था.
जब हौसा बाई सिर्फ़ तीन साल की थीं तब उनकी माँ का निधन हो गया था. तब तक उनके पिता ज्योतिबा फुले और महात्मा गांधी से प्रभावित होकर आज़ादी की लड़ाई में कूद चुके थे.
उनके पिता ने गाँव के लेखपाल की नौकरी छोड़कर अपना पूरा समय आज़ादी की लड़ाई को देना शुरू कर दिया था.
उनके ख़िलाफ़ सरकार ने गिरफ़्तारी के वॉरंट जारी कर दिए थे इसलिए उन्हें भूमिगत रहकर अपना सारा काम करना पड़ता था. वह गाँव-गाँव घूम कर लोगों को विद्रोह करने के लिए कहते थे.
उनके साथ क़रीब 500 लोग काम कर रहे थे. उन सबके ख़िलाफ़ सरकार ने गिरफ़्तारी के वॉरंट जारी कर दिए थे. वे लोग रात में हरकत में आते थे.
उनका काम रेलवे लाइन को उखाड़ना होता था. वे यात्रियों वाली गाड़ी को पटरी से नहीं उतारते थे. उनका निशाना अंग्रेज़ सरकार के लिए सामान ले जाने वाली मालगाड़ियाँ हुआ करती थीं.
जब हौसा बाई के पिता नाना पाटिल को अंग्रेज़ सरकार पकड़ नहीं पाई तो उन्होंने उनकी सारी संपत्ति ज़ब्त कर ली.
हौसा बाई याद करती थीं, "हमारे घर को सन 1929 में ज़ब्त किया गया था. हमें रहने के लिए सिर्फ़ एक छोटा कमरा दिया गया. उन्होंने हमारे खेतों की भी कुर्की कर ली जिससे हमारी आमदनी के सारे ज़रिए समाप्त हो गए."
"गाँव वालों ने पुलिस के डर से हमसे बात तक करना बंद कर दिया. गाँव के पंसारी ने हमें नमक तक देने से इनकार कर दिया. हम लोग गूलर को पकाकर उसकी सब्ज़ी खाने लगे."
एक तरफ़ हौसा बाई के गाँव वाले उनकी मदद नहीं कर रहे थे लेकिन उन्होंने अंग्रेज़ सरकार के साथ भी सहयोग नहीं किया.
जब सरकार ने नाना पाटिल की संपत्ति की नीलामी का ऐलान किया तो कोई भी गाँव वाला उसे ख़रीदने के लिए आगे नहीं आया.
हर सुबह और शाम गाँव भर में मुनादी कराई जाती कि नाना पाटिल के खेत की नीलामी होनी है. लेकिन किसी भी गाँव वाले ने उनके खेत के लिए बोली नहीं लगाई.
हौसा बाई के मामा ने उनके जीवनयापन के लिए उन्हें बैलों की एक जोड़ी समेत एक बैलगाड़ी दे दी.
उनका परिवार उस बैलगाड़ी के ज़रिए गुड़, मूँगफली और अनाज बाज़ार तक पहुंचाने का धंधा करने लगा.
हौसा बाई का परिवार सन 1947 में आज़ादी मिलने तक उसी एक कमरे के घर में रहा.
हौसा बाई ने याद किया, "मेरी दादी का ब्लाउज़ फट गया था. हमारे पास नया ब्लाउज़ ख़रीदने के पैसे नहीं थे. उन्होंने मेरे पिता की एक पुरानी लुंगी फाड़ कर उसके दो टुकड़े किए और उससे दो सफ़ेद ब्लाउज़ बनाए. बाद में जब हमारे पास थोड़े पैसे हो गए तो हमने उनके लिए एक नया ब्लाउज़ ख़रीदा लेकिन उन्होंने उन्हें छुआ तक नहीं."
"आज़ादी मिलने और हमारी संपत्ति वापस मिलने तक वह अपने बेटे की लुंगी से बने दो ब्लाउज़ ही पहनती रहीं. आज़ादी के बाद भी मेरी दादी ने कभी भी रंगीन ब्लाउज़ नहीं पहने और सफ़ेद ब्लाउज़ ही पहनती रहीं. 1963 में जब उनकी मृत्यु हुई तब भी वह सफ़ेद ब्लाउज़ ही पहने हुई थीं."

सन 1944 में हौसा बाई और तूफ़ान सेना के उनके साथियों ने गोवा में भी एक अभियान में भाग लिया. उनको अपने एक साथी को जेल से छुड़वाने की ज़िम्मेदारी दी गई जिसको वहाँ से सतारा हथियार पहुंचाने के दौरान पुर्तगाली पुलिस ने पकड़ लिया था.
उस ज़माने में भारतीय क्रांतिकारियों के लिए ख़ास तौर से जो महाराष्ट्र में सक्रिय थे, गोवा से हथियार ख़रीदना आम बात थी.
गोवा में भारत के दूसरे हिस्सों की अपेक्षा हथियार ख़रीदना आसान हुआ करता था.
जब गोवा से हथियार लाने के दौरान उनके एक साथी बाल जोशी को गिरफ़्तार कर लिया गया तो तूफ़ान सेना के संस्थापक और नेता जीडी बाबू लाड ने जोशी को छुड़ाने के अभियान में ख़ुद भाग लेने का फ़ैसला किया. उनके साथ हौसा बाई भी गईं.
पी साईनाथ लिखते हैं, "हौसा बाई पणजी जेल में बाल जोशी से मिलने में कामयाब रहीं. वह उनकी बहन बनकर उनसे मिलीं. उन्होंने उनके वहाँ से बच निकलने की योजना एक काग़ज़ पर लिखी और उसे अपने जूड़े में छिपा कर उनके पास ले गईं. इसके अलावा उन्हें तूफ़ान सेना के वे हथियार भी उठाने थे जो अभी तक गोवा पुलिस के हाथ नहीं पड़े थे."
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थाने में हुई लूट से पहले पुलिस वालों ने हौसा बाई को देख लिया था इसलिए तय किया गया कि वह रेल के बजाय ज़मीन के रास्ते वापस लौटेंगी. इसका मतलब था घने जंगलों के बीच मीलों पैदल चलना.
हौसा बाई ने याद किया, "चलते-चलते हम माँडवी नदी के किनारे पहुंच गए. नदी पार करने के लिए वहाँ कोई नाव नहीं थी. हमारे पास नदी को तैर कर पार करने के अलावा कोई चारा नहीं था. मैं तालाब में तो तैरने की आदी थी लेकिन इतनी बड़ी नदी में तैरना मेरे बस की बात नहीं थी."
"तभी हमें वहाँ मछली के जाल के अंदर लिपटा हुआ लकड़ी का एक बक्सा दिखाई दिया. उस बक्से के ऊपर पेट के बल लेट कर आधी रात को मैंने वह नदी पार की. हमारे दूसरे साथी हमारे साथ-साथ तैर रहे थे. ज़रूरत पड़ने पर वे उस लकड़ी के बक्से को सहारा दे देते थे जिस पर मैं लेटी हुई थी. नदी पार करने के बाद हम जंगल के रास्ते आगे बढ़े और 13 दिन पैदल चलकर अपने घर वापस पहुंचे."
कुछ दिनों बाद बाल जोशी अपने साथियों की मदद से जेल से निकल भागने में कामयाब रहे.
इसमें उस काग़ज़ की बहुत बड़ी भूमिका थी जिसे हौसा बाई अपने जूड़े में छिपा कर जेल ले गई थीं.
95 साल की उम्र में निधनभवानी नगर पुलिस थाने के मामले और गोवा अभियान से पहले हौसा बाई की भूमिका तूफ़ान सेना के लिए ख़ुफ़िया जानकारी इकट्ठा करने की होती थी.
वह पता लगाया करती थीं कि किस डाक बंगले पर कितने पुलिस वाले मौजूद हैं? वे कब आते और जाते हैं? वे कौन-सा समय है जब उन पर हमला करना आसान होगा?
डाक बंगले पर आग लगाने का काम दूसरे दल का हुआ करता था.
पी साईनाथ लिखते हैं, "अंग्रेज़ सरकार की प्रशासनिक मशीनरी में इन डाक बंगलों की बहुत बड़ी भूमिका हुआ करती थी. इनके नष्ट हो जाने से उस इलाक़े के प्रशासन में व्यवधान उत्पन्न हो जाया करता था."
23 सितंबर, 2021 को 95 साल की उम्र में हौसा बाई ने इस दुनिया को अलविदा कहा. भारत की आज़ादी की लड़ाई की महागाथा में हौसा बाई को जो स्थान मिलना चाहिए था वह कभी नहीं मिला.
इतिहास की किताबों में भी उनकी अनदेखी की गई. महाराष्ट्र की इतिहास की किताबों में कहीं-कहीं 'प्रति सरकार' का तो मामूली ज़िक्र मिलता है लेकिन 'तूफ़ान सेना' के कारनामों को बहुत जल्दी भुला दिया गया.
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