पिछले कुछ सालों से भारत के चीफ़ जस्टिस मीडिया की सुर्ख़ियों में रहते आए हैं. कुछ अपने फ़ैसलों की वजह से तो कुछ अपने भाषणों और इंटरव्यू के कारण और कुछ अपने प्रशासनिक कामों की वजह से चर्चा में रहे हैं.
जस्टिस संजीव खन्ना ने पिछले साल 11 नवंबर को चीफ़ जस्टिस के रूप में शपथ ली थी. उस वक़्त जानकारों का कहना था कि वे अपने काम से काम रखने वाले एक बहुत निजी व्यक्ति हैं. वे मीडिया से दूर रहना पसंद करते हैं.
उनका यह स्वभाव अपने से पहले वाले चीफ़ जस्टिस धनंजय चंद्रचूड़ से उलट था. जस्टिस चंद्रचूड़ भारत के सबसे चर्चित न्यायाधीशों में से एक थे.
चीफ़ जस्टिस संजीव खन्ना 13 मई को रिटायर हो गए. उनके छह महीने के कार्यकाल की बात करें तो इस दौरान देखा गया कि उनका कोई भाषण या उनकी कोई सार्वजनिक मौजूदगी चर्चा में नहीं रही.
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हालाँकि, इसके बाद भी चीफ़ जस्टिस संजीव खन्ना कई बार सुर्खियों में रहे.
छोटे से कार्यकाल में भी उन्होंने कोर्ट के इतिहास में अपनी छाप छोड़ी. वक़्फ़ क़ानून, उपासना स्थल से जुड़े मंदिर-मस्जिद मामले और यशवंत वर्मा के घर पर मिले कथित कैश जैसे कुछ अहम मुद्दे उनके सामने थे.
यही नहीं, उनके कार्यकाल में सुप्रीम कोर्ट ने पारदर्शिता बढ़ाने की ओर भी कुछ क़दम उठाए. जैसे, जजों की संपत्ति सार्वजनिक करने का फ़ैसला.
पहले चलते हैं, उनके अहम फ़ैसलों की ओर जो उन्होंने बतौर चीफ़ जस्टिस दिए. चीफ़ जस्टिस बनने से पहले भी वे कुछ अहम फ़ैसलों के हिस्सा थे. इसके बारे में आप पढ़ सकते हैं.
बीते नवंबर उत्तर प्रदेश के संभल की एक अदालत में एक याचिका दायर की गई. इसमें यह कहा गया कि वहाँ की शाही जामा मस्जिद एक मंदिर की जगह पर बनी है. स्थानीय अदालत ने आदेश दिया कि मस्जिद का सर्वेक्षण होना चाहिए. इसके बाद वहाँ का माहौल तनावपूर्ण हो गया. वहाँ हिंसा भड़की. इसमें पाँच लोगों की मौत हो गई.
फिर, नवंबर में ही राजस्थान की एक अदालत ने प्रसिद्ध अजमेर शरीफ़ दरगाह से जुड़े एक मुक़दमे में नोटिस जारी किया. मुक़दमे में यह दावा किया गया था की दरगाह के नीचे एक शिव मंदिर है.
इन दोनों विवाद के कारण बाक़ी मंदिर-मस्जिद मामले भी चर्चा में आ गए थे. साल 2019 में तय हुए अयोध्या में राम मंदिर-बाबरी मस्जिद मामले के बाद कम से कम 12 मस्जिदों, दरगाह और स्मारकों पर विभिन्न हिन्दू पक्षों ने दावा किया है कि ये मंदिर तोड़ कर बनाए गए हैं. इन्हें वापस हिंदुओं को सौंप देना चाहिए.
इसका विरोध करते हुए मुस्लिम पक्षों का दावा है कि ऐसे मुक़दमे उपासना स्थल क़ानून-1991 के ख़िलाफ़ जाते हैं. यह क़ानून मंदिर-मस्जिद विवादों को रोकने के लिए बनाया गया था.

उपासना स्थल क़ानून से जुड़े एक मामले में जस्टिस संजीव खन्ना के नेतृत्व में तीन जजों की एक पीठ ने दिसंबर में इस पर एक अहम फ़ैसला सुनाया. सुप्रीम कोर्ट के सामने कई याचिकाएँ थीं जो इस क़ानून के तहत ऐसे मामलों को रोकने की माँग कर रही थीं. वहीं, कुछ याचिकाएँ इस क़ानून का विरोध कर रही थीं. ये मामले साल 2020 से लंबित थे.
पिछले साल 12 दिसंबर को हुई सुनवाई में कोर्ट ने अंतरिम आदेश दिया. अपने आदेश में कोर्ट ने कहा कि जब तक इन मामलों की सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई पूरी नहीं होती तब तक कोई अदालत इन मुद्दों पर कोई क़दम नहीं उठा सकता और न ही कोई नए मामले दाख़िल कर सकता है. ऐसे फ़ैसले की माँग मुस्लिम पक्ष के साथ कई और लोग बहुत समय से कर रहे थे.
इस सुनवाई के दौरान जब जस्टिस संजीव खन्ना ने कहा था कि वे ऐसा आदेश देने पर विचार कर रहे हैं, तब सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता और कई और वरिष्ठ वकीलों के इसका विरोध किया. कोर्ट वकीलों से खचाखच भरा हुआ था. जस्टिस संजीव खन्ना की टिप्पणी से वहाँ खलबली मच गई थी.
जब वह फ़ैसला लिखवा रहे थे, तब भी वकीलों ने उन्हें रोकने की कोशिश की. इस पर जस्टिस संजीव खन्ना ने कहा, "हम ऐसे कोई फ़ैसला नहीं सुना सकते. अगर आप हमें कोर्ट में अपना ऑर्डर लिखवाने नहीं देंगे तो हम अपने चैम्बर में फ़ैसला देंगे."
कोर्ट के इस फ़ैसले से मंदिर-मस्जिद विवाद के मामलों पर अंतरिम विराम लगा. इस मामले में सुनवाई अभी बाक़ी है.

एक और महत्वपूर्ण मुद्दा सुप्रीम कोर्ट के सामने आया. वह वक़्फ़ क़ानून के संशोधन से जुड़ा हुआ है. संसद में चर्चा के बाद इस अप्रैल वक़्फ़ क़ानून के कई प्रावधानों में बदलाव किए गए थे. इसमें वक़्फ़ काउंसिल और वक़्फ़ बोर्ड में ग़ैर मुस्लिमों की नियुक्ति और '' से जुड़े कई संशोधन लाए गए. इन पर काफ़ी विवाद है.
क़ानून पारित होते ही कोर्ट में दर्जनों याचिकाएँ दायर हुईं. इनमें इन संशोधनों को चुनौती दी गई. इस साल 16 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की एक पीठ ने इन याचिकाओं को सुना.
जस्टिस संजीव खन्ना भी इस बेंच में थे. संजीव खन्ना ने सुनवाई के दौरान एक अंतरिम आदेश जारी करने की मंशा जताई. इससे यह संकेत मिला कि वे इन दो प्रावधानों पर अंतरिम रोक लगाने पर विचार कर रहे हैं.
हालाँकि, केंद्र सरकार ने इसका विरोध किया. फिर सरकार ने ख़ुद आश्वासन दिया कि वे इन प्रावधानों को अभी लागू नहीं करेंगे. कोर्ट ने इसे 'ऑन रिकॉर्ड' लिया. अभी यह मामला चल रहा है.
बहुत समय से कोर्ट की एक बड़ी आलोचना यह थी कि कुछ ज़रूरी मामले बहुत समय तक लंबित रहते हैं. लेकिन इस मामले में कोर्ट ने बहुत जल्दी क़दम उठाए.
सुप्रीम कोर्ट के इन दो अंतरिम फ़ैसलों से देश में धर्म से जुड़े दो अहम मुद्दों पर कुछ समय के लिए रोक लगी. हालाँकि, इसकी वजह से कई लोगों ने कोर्ट पर हमले भी किए.
वक़्फ़ मामले की सुनवाई के बाद भारतीय जनता पार्टी के नेता निशिकांत दुबे ने जस्टिस खन्ना की कड़ी निंदा की.
उन्होंने , "इस देश में जितने गृहयुद्ध हो रहे हैं, उसके ज़िम्मेदार केवल यहाँ के चीफ़ जस्टिस ऑफ़ इंडिया संजीव खन्ना साहब हैं."
साथ ही सुप्रीम कोर्ट को ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म पर भी 'ट्रोल' किया गया.
संवैधानिक क़ानून के विशेषज्ञ गौतम भाटिया ने अपने एक में कहा कि इन दो फ़ैसलों के परिणाम भले ही अच्छे हों, पर कोर्ट ने अपना फ़ैसला देने के पीछे के कारण नहीं बताए.
उन्होंने लिखा कि कोर्ट का फ़ैसला तर्कों के आधार पर होना चाहिए. वरना आगे आने वाले जज इसे बदल भी सकते हैं.
जस्टिस संजीव खन्ना के सामने कुछ लोगों ने संविधान की प्रस्तावना में 'समाजवादी' और 'पंथनिरपेक्ष' के इस्तेमाल के ख़िलाफ़ भी याचिकाएँ दायर की थीं. ये दो शब्द इंदिरा गांधी के कार्यकाल में प्रस्तावना में जोड़े गए थे.
हालाँकि, जस्टिस संजीव खन्ना के नेतृत्व वाली दो जजों की बेंच ने यह कहते हुए याचिकाएँ ख़ारिज कर दीं कि दोनों सिद्धांत लोगों में समानता बढ़ाने के लिए ज़रूरी हैं.
उन्होंने की सुनवाई करते हुए उत्तर प्रदेश पुलिस की आलोचना की और कहा कि प्रदेश में आम सिविल मामलों को क्रिमिनल मामला बनाया जा रहा है.
उत्तर प्रदेश सरकार पर का जुर्माना भी लगाया और कहा कि सरकार उन अफ़सरों से यह जुर्माना ले सकती जिन्होंने एक सिविल मामले को क्रिमिनल केस बनाया.
जस्टिस संजीव खन्ना के कार्यकाल में न्यायपालिका में भ्रष्टाचार और जजों के आचरण से जुड़ी दो अहम घटनाएँ भी हुईं.
एक था, दिल्ली हाई कोर्ट के जज यशवंत वर्मा से जुड़ा मामला. इस साल 14 मार्च को जस्टिस यशवंत वर्मा के आवास परिसर के एक स्टोर रूम में आग लग गई.
इसके बाद वहाँ से कथित तौर पर भारी मात्रा में नक़दी बरामद हुई थी. 15 मार्च को इस मामले को दिल्ली हाई कोर्ट के चीफ़ जस्टिस देवेंद्र कुमार उपाध्याय और जस्टिस संजीव खन्ना के संज्ञान में लाया गया.
इस बात की ख़बर आम जनता तक पहली बार 21 मार्च को उस वक़्त पहुँची जब अख़बार टाइम्स ऑफ़ इंडिया में इससे जुड़ी एक रिपोर्ट छपी. त
ब कोर्ट की बहुत आलोचना की गई कि अगर ऐसी घटना हुई थी तो इसे छिपाया नहीं जाना चाहिए था.
इसके बाद 22 मार्च की रात सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस यशवंत वर्मा के मामले में अपनी एक रिपोर्ट सार्वजनिक की. यही नहीं, एक 'इन-हाउस कमेटी' से इस मामले की जाँच करने को कहा.
इन-हाउस कमेटी में दो हाई कोर्ट के चीफ़ जस्टिस और एक हाई कोर्ट जज थे.
रिपोर्ट सार्वजनिक करने के क़दम का कई लोगों ने यह कहते हुए स्वागत किया कि यह न्यायपालिका की पारदर्शिता बढ़ाता है.
हालाँकि, 'इन-हाउस कमेटी' की रिपोर्ट अब तक सार्वजनिक नहीं की गई है. जस्टिस संजीव खन्ना ने इस रिपोर्ट को प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के पास भेजा है.
मीडिया की के मुताबिक़, 'इन-हाउस कमेटी' ने यशवंत वर्मा को दोषी पाया है.
हालाँकि, दिल्ली हाई कोर्ट चीफ़ जस्टिस को दिए जवाब में यशवंत वर्मा का कहना है कि वे 'बेक़सूर' हैं.
अब भी कई सामाजिक कार्यकर्ताओं और वकीलों की माँग है कि 'इन-हाउस कमेटी' की रिपोर्ट भी सार्वजनिक करनी चाहिए.
इस घटना के बाद, एक अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट की 'फ़ुल कोर्ट मीटिंग' हुई. इसमें यह तय किया गया कि सुप्रीम कोर्ट के सभी जजों को अपनी संपत्ति की जानकारी भारत के चीफ़ जस्टिस को देनी होगी और यह जानकारी कोर्ट की वेबसाइट पर सार्वजनिक रूप से प्रकाशित की जाएगी.
अब तक, सुप्रीम कोर्ट जज अपनी संपत्ति की जानकारी सिर्फ़ चीफ़ जस्टिस को सौंपते थे. उसे वेबसाइट पर डालना ज़रूरी नहीं था.
हालाँकि, बहुत समय से सांसदों और विधायकों की तरह ही सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की संपत्ति की घोषणा सार्वजनिक करने की माँग की जा रही थी.
इसके साथ ही संजीव खन्ना के नेतृत्व में कोर्ट ने कुछ और जानकारी पहली बार सार्वजनिक की. जैसे, पिछले ढाई सालों में अब तक हाई कोर्ट में जजों की नियुक्ति के लिए कितने नामों की सिफ़ारिश की गई है. उनमें कितने सरकार के पास लंबित हैं. उनमें से कितने पूर्व या वर्तमान जजों के परिवार से आते हैं.
साथ ही उनके धर्म और जाति के बारे में भी जानकारी दी गई. हालाँकि, यह अब आगे के चीफ़ जस्टिस पर निर्भर करेगा कि वे ऐसी जानकारी लगातार सार्वजनिक करते हैं या नहीं.
हालाँकि, एक अहम घटना पर कोर्ट की तरफ़ से कुछ ठोस कदम उठता नहीं दिखा.
इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज शेखर यादव ने दिसम्बर 2024 में विश्व हिन्दू परिषद के एक कार्यक्रम में मुसलमानों के ख़िलाफ़ कथित तौर पर 'हेट स्पीच' दिया था.
इसमें भी जस्टिस संजीव खन्ना ने 'इन-हाउस' . हालाँकि, इस सिलसिले में अब तक कोई नई जानकारी बाहर नहीं आई है.
(बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित)
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