क़रीब छह साल पहले की बात है. राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ह्यूस्टन में एक साथ खड़े थे और 'हाउडी मोदी' रैली में हज़ारों लोगों को संबोधित कर रहे थे.
इस दौरान दोनों ने हाथ मिलाया, गले मिले, साझा मूल्यों और वैश्विक नेतृत्व पर ज़ोरदार भाषण दिया.
यह वह पल था, जिसे भारत और अमेरिका की साझेदारी का शिखर माना जाता था, लेकिन अब यह एक भूला हुआ अध्याय लगता है.
ट्रंप के दूसरे कार्यकाल के सात महीने बीत चुके हैं और माहौल सौहार्द से टकराव में बदल गया है.
दोनों सहयोगी देश अब ट्रेड वॉर की ओर बढ़ रहे हैं. ट्रंप ने पिछले हफ़्ते भारत से आयात होने वाले सामान पर 25 फ़ीसदी टैरिफ़ लगाया है, जिसे पहले से ही सख़्त माना जा रहा था.
लेकिन चार अगस्त को ट्रंप ने भारत पर 25 फ़ीसदी से और ज़्यादा टैरिफ़ लगाने की चेतावनी दी.
इसके पीछे उन्होंने वजह बताई कि भारत बहुत अधिक मात्रा में रूसी तेल ख़रीदता है. ट्रंप का कहना है कि इससे यूक्रेन में चल रही 'जंग के लिए फ़ंड मिल रहा है'.
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कई पर्यवेक्षकों को हैरानी हुई कि भारत ने ट्रंप के टैरिफ़ को बर्दाश्त नहीं किया, बल्कि कड़े शब्दों में जवाब देते हुए पलटवार किया. मोदी सरकार ने इसे 'पश्चिम का पाखंड' बताया.
सरकार ने तर्क दिया कि जहाँ भारतीय रिफ़ाइनरियाँ ज़रूरत के हिसाब से बाज़ार-आधारित फ़ैसले कर रही हैं, वहीं अमेरिका और यूरोपीय संघ के देश प्राकृतिक गैस और उर्वरकों से लेकर मशीनरी और धातुओं तक, विभिन्न क्षेत्रों में रूस के साथ व्यापार करते रहे हैं.
ट्रंप के टैरिफ़ से सोमवार को बाज़ारों में उथल-पुथल देखी गई. वहीं मंगलवार को दूसरा झटका लगा.
सीएनबीसी से बात करते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने "अगले 24 घंटों के अंदर" टैरिफ़ बढ़ाने की धमकी दी.
उन्होंने कहा, "भारत एक अच्छा व्यापारिक साझेदार नहीं रहा है. वे हमारे साथ ख़ूब व्यापार करते हैं, लेकिन हम उनके साथ व्यापार नहीं करते."
टैरिफ़ लगाने की ट्रंप की ये धमकी एक बड़ा दांव है, जो भारत के अपनी ज़मीन पर डटे रहने की क्षमता की परीक्षा है.
जैसा कि एक भारतीय अधिकारी ने कहा, "देश अपने राष्ट्रीय हितों और आर्थिक सुरक्षा की हिफ़ाज़त के लिए सभी ज़रूरी उपाय करेगा."
- डोनाल्ड ट्रंप ने अब कहा, 'हम अगले 24 घंटों में भारत पर टैरिफ़ बढ़ाने जा रहे हैं'
- रूस से तेल की सप्लाई घटी तो भारत के पास क्या विकल्प होंगे और इनका असर क्या होगा?
- अमेरिका के साथ भारत के रिश्तों की 'तल्ख़ी' का फ़ायदा उठाएगा पाकिस्तान?
ट्रंप के दबाव बनाने का समय रणनीतिक है. वैश्विक चुनौतियों का सामना करते हुए और स्थिर महंगाई दर बनाए रखते हुए भारत की अर्थव्यवस्था काफ़ी अच्छा कर रही है.
विदेशी मुद्रा भंडार 645 अरब डॉलर से ज़्यादा हो गया है, रुपया स्थिर है और भारत अब चीन को पीछे छोड़ते हुए अमेरिका का सबसे बड़ा स्मार्टफ़ोन निर्यातक बन गया है.
लेकिन जानकारों का मानना है कि भारत की यही तेज़ी टैरिफ़ की 'जबरन वसूली' के लिए उसे टारगेट बनाती है.
अमेरिका स्थित दक्षिण एशिया के विश्लेषक माइकल कुगलमैन का मानना है कि ट्रंप की चेतावनी कुछ हद तक व्यक्तिगत हैं.
उन्होंने कहा, "ट्रंप भारत सरकार से ख़ुश नहीं हैं. भारतीय वार्ताकारों ने व्यापार वार्ता में अमेरिका की सभी मांगों को मानने से इनकार कर दिया."
कुगलमैन का मानना है कि ट्रंप की यह नाराज़गी हाल ही में भारत-पाकिस्तान संघर्ष विराम का श्रेय ट्रंप को नहीं देने और एक तनावपूर्ण फ़ोन कॉल के दौरान मोदी के 'सख़्त रुख़' से उपजी है.
वो कहते हैं, "शायद यही वजह है कि ट्रंप चीन और अन्य प्रमुख रूसी तेल ख़रीदारों की तुलना में भारत पर ज़्यादा निशाना साध रहे हैं."
सच तो यह है कि रूस के साथ भारत का तेल व्यापार कोई छिपा हुआ मामला नहीं है. यह एक खुला और बाज़ार को देखते हुए किया गया फ़ैसला है, जो यूक्रेन जंग से उपजे ऊर्जा संकट से प्रभावित है.
भारतीय विदेश मंत्रालय ने कहा, "वैश्विक बाज़ार की स्थिति के कारण आयात एक ज़रूरत है."
उन्होंने इस ओर इशारा किया कि यूरोपीय देश ख़ुद रूसी व्यापार में गहरी पैठ रखते हैं.
ये देश उर्वरक, इस्पात और मशीनरी का आयात करते हैं. भारत बस वही कर रहा है, जो ऊर्जा लागत कम रखने और महंगाई दर को नियंत्रित रखने के लिए ज़रूरी है.


हाल ही में अमेरिका के विदेश मंत्री मार्को रुबियो ने बहुत ही नपे-तुले लहजे में बात की.
उन्होंने स्वीकार किया कि भारत एक 'रणनीतिक साझेदार' है, लेकिन साथ ही यह भी कहा कि रियायती दरों पर रूसी तेल की उसकी ख़रीद 'निश्चित तौर पर चिढ़ का विषय' है.
लेकिन रुबियो ने भारत की ऊर्जा संबंधी ज़रूरतों को भी स्वीकार किया.
उन्होंने कहा, "हर देश की तरह, उन्हें भी अपनी अर्थव्यवस्था को मज़बूत करना होगा. रूसी तेल प्रतिबंधित है और सस्ता है."
अब मूल सवाल ये है कि भारत इस दबाव को कब तक झेल सकता है?
लंदन स्थित चैटम हाउस के डॉ. क्षितिज बाजपेयी कहते हैं, "हालाँकि अमेरिका भारत का प्रमुख व्यापारिक साझेदार है, लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था अन्य प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं की तरह व्यापार पर उतनी निर्भर नहीं है."
भारत के जीडीपी में व्यापार का हिस्सा 45 फ़ीसदी है, जो यूरोपीय संघ के 92 फ़ीसदी से कम है. साथ ही भारत का ये आँकड़ा वैश्विक औसत से भी कम है.
इससे भारत को कुछ हद तक सुरक्षा तो मिलती है, लेकिन पूरी तरह से राहत नहीं.
और भारत को सिर्फ़ आर्थिक मजबूती नहीं, बल्कि रणनीतिक स्पष्टता भी दिखानी होगी.
स्टीव हांके, जॉन्स हॉपकिन्स विश्वविद्यालय में अप्लाइड इकोनॉमिक्स के प्रोफ़ेसर हैं.
उन्होंने राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन की आर्थिक सलाहकार परिषद में काम किया था.
मैट सेकरके के साथ उनकी सबसे हालिया पुस्तक है, मेकिंग मनी वर्क: हाउ टू रीराइट द रूल्स ऑफ़ आवर फ़ाइनेंशियल सिस्टम.
वे कहते हैं, "राष्ट्रपति ट्रंप का व्यक्तित्व अस्थिर है. नतीजतन, वह सुबह आपसे हाथ मिला सकते हैं और रात में आपकी पीठ में छुरा घोंप सकते हैं."
प्रोफ़ेसर हांके का मानना है कि भारत को आवेश में आकर प्रतिक्रिया देने की बजाय, नेपोलियन की पुरानी सलाह पर ध्यान देना चाहिए, "अगर कोई दुश्मन ख़ुद को बर्बाद कर रहा हो, तो उसमें दखल मत दो. "
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- ट्रंप के टैरिफ़ के बाद क्या भारत और अमेरिका के रिश्ते और तल्ख़ होंगे?
इन सबके बीच एक और लड़ाई चल रही है. एक ऐसी लड़ाई, जो भारत की घरेलू अर्थव्यवस्था की आत्मा पर हमला कर सकती है.
अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि राष्ट्रपति ट्रंप की टीम चाहती है कि भारत अपने डेयरी और कृषि क्षेत्रों को अमेरिकी कृषि व्यवसाय के लिए खोले.
लेकिन भारत के लिए यह केवल एक व्यापारिक मुद्दा नहीं है.
भारत का कृषि क्षेत्र राजनीतिक तौर पर संवेदनशील, सामाजिक तौर पर जटिल और आर्थिक तौर पर महत्वपूर्ण है. 40 फ़ीसदी से अधिक भारतीय अभी भी अपनी आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर हैं.
भारी सब्सिडी वाले अमेरिकी कृषि उत्पादों के लिए रास्ता खोलने से बाज़ार में उत्पादों की संख्या काफ़ी बढ़ सकती है, क़ीमतें गिर सकती हैं और छोटे किसान बर्बाद हो सकते हैं.
साल 2020-21 के किसान आंदोलन की यादें अभी भी मोदी के ज़ेहन में ताज़ा होंगी. इस आंदोलन ने सरकार को विवादास्पद कृषि क़ानूनों को वापस लेने के लिए मजबूर किया.
यहाँ हार मान लेना न केवल आर्थिक तौर पर लापरवाही होगी, बल्कि राजनीतिक तौर पर भी बखेड़ा खड़ा कर सकता है.
संतुलन बनाने की रणनीतिफ़िलहाल, भारत की रणनीति संतुलन बनाने की है. भारत बिना किसी स्पष्ट रियायत के समाधान के लिए अमेरिका के साथ चुपचाप बातचीत जारी रखे हुए है.
कुगलमैन का मानना है कि भारत भारी दबाव में भी 'अपने रुख़ पर अड़ा रहेगा'.
उन्होंने कहा, "भारत को अपने घरेलू राजनीतिक कारणों से अमेरिका को ज़्यादा रियायतें नहीं देने पर ध्यान देना होगा."
कुगलमैन कहते हैं, "यह समझौता करना आसान नहीं होगा."
भारत लंबे समय के लिए दांव खेल रहा है. उसने अमेरिका और मध्य पूर्व से तेल आयात बढ़ाया है, ईरान और वेनेज़ुएला से दूरी बनाई है और ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों में भारी निवेश किया है.

असली त्रासदी सिर्फ़ द्विपक्षीय व्यापार ही नहीं है.
ट्रंप के टैरिफ़ वाले फ़ैसलों ने विश्व व्यापार संगठन यानी डब्ल्यूटीओ को भी बौना कर दिया है.
देशों के बीच व्यापार के मसलों को हल करने वाली ये संस्था अब निष्क्रिय सी हो गई है.
एक भारतीय अधिकारी ने बताया, "एक ज़माने में व्यापार आपसी बातचीत से चलता था. अब डराने-धमकाने का दौर आ गया है."
प्रोफ़ेसर हांके मानते हैं कि ट्रंप की सारी रणनीति ही गड़बड़ है.
वे कहते हैं, "ट्रंप के ट्रेड वॉर के पीछे की आर्थिक सोच ताश के पत्तों के महल की तरह है. अमेरिकी अर्थव्यवस्था धीमी हो रही है और आर्थिक मंदी की कगार पर है."
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अमेरिका की तमाम धमकियों के बावजूद ऐसा नहीं है कि भारत किसी तरह से कमज़ोर है.
एक दमदार डिजिटल इकोनॉमी और लगातार बढ़ती उपभोक्ताओं की संख्या की वजह से भारत को डराना आसान नहीं है.
बाजपेयी कहते हैं, "भारत की रणनीतिक स्वायत्तता के प्रति अरसे से चली आ रही प्रतिबद्धता का मतलब है कि वो दुनिया की सभी प्रमुख प्रभावशाली शक्तियों से संवाद बनाए रखेगा."
इन शक्तियों में पश्चिम तो शामिल है ही, लेकिन चीन, रूस और ग्लोबल साउथ के देश भी हैं.
भारत का आर्थिक विकास एक उम्मीद जगाता है.
यहाँ महंगाई दर पिछले छह वर्षों के अपने सबसे न्यूनतम स्तर पर है.
रोज़गार के अवसर भी बढ़ रहे हैं और निर्यात भी अपने स्तर पर बना हुआ है.
देश की अर्थव्यवस्था पटरी पर लग रही है.
दोस्ती का अंत और नए दौर की शुरुआत?
कभी मोदी के साथ गर्मजोशी से हाथ मिलाने वाले ट्रंप अब उनके ख़िलाफ़ क्यों हो गए हैं?
अतीत पर नज़र दौड़ाएँ, तो इसके संकेत पहले ही मिलने लगे थे.
कूटनीति के जानकारों ने चेतावनी दी थी कि आपसी संबंधों पर व्यक्तिगत केमिस्ट्री को तरजीह नहीं दी जानी चाहिए.
मोदी और ट्रंप के बीच दोस्ती पर मीडिया की कवरेज देखने में तो अच्छी लगती होगी, लेकिन ये दो देशों के बीच रिश्तों की जटिलताओं को नहीं दिखाती.
आख़िरकार निजी रिश्ते राजनीति में काम नहीं आए.
ट्रंप की सियासत में जज़्बात अहमियत नहीं रखते. जैसा कि बाजपेयी कहते हैं, "ट्रंप की विदेश नीति में दोस्त या दुश्मन जैसी कोई चीज़ नहीं."
उनका तर्क है कि भारत तेल या व्यापार के मसले पर ट्रंप से सहमत नहीं हुआ, उसी की वजह से सब कुछ हो रहा है.
इन हालात में भारत को क्या करना चाहिए?
प्रोफ़ेसर हांके कहते हैं, "भारत को उन देशों की ओर ध्यान देना चाहिए, जो मुक्त व्यापार समझौतों में दिलचस्पी रखते हैं."
आक्रामक टैरिफ़ के इस दौर में आर्थिक मज़बूती और रणनीतिक स्वायत्तता अस्तित्व का सवाल बन गई है.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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